क्या आप जानते हैं? गीतों के जादूगर जावेद अख्तर ने कभी फुटपाथ पर बिताई थी रातें
जावेद अख्तर का नाम साहित्य और सिनेमा की दुनिया में बड़े सम्मान से लिया जाता है। हालांकि, यह सम्मान पाने के लिए उन्होंने खूब संघर्ष किया है। जावेद का असली नाम जादू है और जादू से जावेद बनने का सफर उनके लिए बहुत मुश्किलों से भरा रहा है। एक वक्त था, जब जावेद के पास खाने तक के पैसे भी नहीं थे। आइए आज यानी 17 जनवरी को जावेद के 77वें जन्मदिन पर उनके संघर्ष की कहानी जानते हैं।
सड़क किनारे सोते थे जावेद
पद्मश्री, पद्मभूषण और राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित जावेद 1964 में आंखों में सपने लिए मुंबई आ गए थे। उनकी उम्र 19 साल थी। उनके पास रहने के लिए घर नहीं था और ना खाने के लिए पैसे। दाल-रोटी तो उनके लिए महज एक कल्पना थी। लिहाजा कई रातें जावेद ने सड़क किनारे बिताईं। काफी समय तक रहने के लिए किसी जगह की तलाश कर रहे जावेद को आखिरकार जागेश्वरी में कमाल अमरोही के स्टूडियो में रहने का ठिकाना मिला।
...जब निर्माता ने किया जलील
जावेद के लिए बॉलीवुड में करियर बनाना आसान नहीं था। खुद को इंडस्ट्री में साबित करने के लिए उन्होंने खूब पापड़ बेले। एक बार शब्दों के जादूगर जावेद अपनी स्क्रिप्ट लेकर किसी निर्माता के पास गए। निर्माता को उनकी कहानी इतनी बुरी लगी कि उसने पन्ने जावेद के मुंह पर मार दिए और कहा कि तुम जिंदगी में कभी लेखक नहीं बन सकते। हालांकि, जावेद ने हिम्मत नहीं हारी और डायलॉग राइटर से स्क्रिप्ट राइटर व गीतकार बनकर दिखाया।
डायलॉग लिखने के मिलते थे 100 रुपये महीना
जावेद ने शुरुआती दौर में 100 रुपये महीने पर डायलॉग लिखे। चने खरीदकर जेब भरी और पैदल सफर किया। जावेद भले ही अपने खून में शाइरी और लेखन लेकर पैदा हुए, लेकिन उनका संघर्ष किसी आम व्यक्ति सरीखा था, जिन्होंने सफलता का स्वाद सड़कों की खाक छानकर चखा। 1970 में आई फिल्म 'अंदाज' की कामयाबी के बाद जावेद कुछ हद तक बतौर डॉयलाग राइटर अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सलीम के साथ जबरदस्त हिट हुई जावेद की जोड़ी
जावेद ने सलीम खान के साथ मिलकर 1970 के दशक में भारतीय सिनेमा में क्रांति ला दी थी। सलीम और जावेद की जोड़ी ने एकसाथ 'शोले', 'जंजीर' और 'डॉन' जैसी कई हिट फिल्में दीं। यह वही जोड़ी थी, जिसने बॉलीवुड में पटकथा लेखकों को एक नई पहचान दिलाई। इस जोड़ी ने हिंदी सिनेमा का रूख ही मोड़ दिया। सिनेमाघरों में दर्शकों का एक ऐसा भी वर्ग था, जो सलीम-जावेद का नाम सुनकर फिल्म देखने जाया करता था।