#SportsHeroesOfIndia: पान सिंह तोमर को खोजने वाले, एशियन गेम्स स्वर्ण विजेता, जी रहे हैं गुमनाम जिंदगी

भारत के लिए एशियन गेम्स में पदक जीतने का सपना हर एथलीट का होता है और अगर वह एथलीट बाधा दौड़ का हो तो फिर पदक की कीमत और भी बढ़ जाती है। अक्सर पदक जीतने वालों को सरकार की तरफ से पैसे, नौकरी और अच्छी जिंदगी मिलती है लेकिन कुछ को गुमनामी के सिवाय कुछ नहीं मिलता। कुछ ऐसा ही हुआ है 1954 में एशियन गेम्स में बाधा दौड़ के स्वर्ण पदक विजेता सरवन सिंह के साथ।
सरवन सिंह सेना में लगातार दौड़ते थे और वह भारतीय टीम के कैंप में भी शामिल होते रहते थे, लेकिन उन्हें किसी इंटरनेशनल इवेंट पर जाने का मौका नहीं मिला था। 1954 एशियन गेम्स में उन्हें 110 मीटर की बाधा दौड़ में भारत को रिप्रजेंट करने का मौका मिला और पहली बार वह लम्हा आया जब उन्हें लाखों की भीड़ के सामने दौड़ना था। लेकिन सरवन को स्वर्ण जीतने के सिवाय, ना कुछ दिखाई दे रहा था ना ही सुनाई।
सरवन ने 1954 में मनीला में हुए एशियन गेम्स में भारत के लिए 110 मीटर की बाधा दौड़ में स्वर्ण पदक जीता। अपने पहले ही इंटरनेशनल इवेंट पर स्वर्ण पदक जीतने के बाद सरवन बहुत ज़्यादा खुद थे और उन्हें किसी युद्ध में जीत हासिल करने वाले सैनिक की तरह खुशी हो रही थी। 14.7 सेकेंड में रेस पूरी करने वाले सरवन के मुताबिक, वो 14.7 सेकेंड उनके जीवन का सबसे अनमोल समय है।
सरवन ने खुद पदक जीतकर तो शानदार काम किया ही था लेकिन उन्होंने भारत को पान सिंह तोमर जैसा धावक देकर और भी बड़ा काम किया था। 1950 में पान ने रंगरूट के रूप में बंगाल इंजीनियर ग्रुप की फील्ड यूनिट ज्वाइन की और सरवन ही उनके इंस्ट्रक्टर थे। सरवन ने पान को दौड़ते हुए देखा और उनकी प्रतिभा पहचानते हुए उन्हें कोच से मिलवाया। सरवन और कोच नरंजन सिंह की कोचिंग से पान ने बाधा दौड़ में इतिहास रचा।
सरवन को लगा था कि स्वर्ण जीतने के बाद उनकी हालत सुधर जाएगी और वह अपने परिवार का भरण-पोषण आसानी से कर पाएंगे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। 1970 के आस-पास सेना से रिटायर होने के बाद उन्हें सरकार की तरफ से कोई पेंशन भी नहीं मिली और वह गरीबी से जूझने लगे। हालांकि उन्होंने अपने परिवार से दूर रहकर लगभग दो दशक तक टैक्सी चलाई, ताकि उनका परिवार दो वक्त की रोटी खा सके।
लगभग छह साल पहले इंडिया टुडे को दिए इंटरव्यू में सरवन ने कहा था कि उन्हें इस बात पर आश्चर्य हो रहा है कि कोई उनसे बात करने आया है। उसी इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया कि मेडल जीतने के बावजूद उनकी किसी ने नहीं सुनी और गोल्ड मेडलिस्ट होकर भीख मांगने से बेहतर उनके लिए टैक्सी चलाना था। बातचीत का सिलसिला ज़्यादा लंबा नहीं चल पाया क्योंकि 70 वर्षीय सरवन को खेतों में काम करने जाना था।
'पान सिंह तोमर' फिल्म के अंत में दिखाया गया था कि सरवन ने गरीबी के चलते अपने मेडल बेच दिए थे, लेकिन हिंदुस्तान टाइम्स को दिए इंटरव्यू में सरवन ने इस बात को सिरे से खारिज कर दिया। उनके मेडल अभी भी उनके पास हैं।
हमारे देश में यह शिकायत अक्सर होती रहती है कि हम ओलंपिक या एशियन गेम्स में पदक नहीं जीत पाते हैं। लेकिन जिन्होंने पदक जीता है उनके साथ हमने किस तरह का व्यवहार किया! यहां तक कि किसी को उनका नाम तक पता नहीं है। सरवन को भारत सरकार Rs 1,500 का पेंशन देती है। इतने में भला क्या हो सकता है। जो इंसान बाधा दौड़ में देश के काम आ सकता था उसे हमने पूरी तरह भुला दिया।