महाराष्ट्र: रातोंरात भाजपा के लिए "भ्रष्टाचारी" से संस्कारी बने अजित पवार, जनता को क्या सबक मिला?
दृश्य एक- चुनाव प्रचार के दौरान अजित पवार पर 70,000 करोड़ रुपये के भ्रष्टाचार का आरोप लगाते देवेंद्र फडणवीस। दृश्य दो- राज्यपाल भवन में सुबह-सुबह मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते फडणवीस और उनके बाद उप मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते अजित। पहला दृश्य महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के पहले का है और दूसरा दृश्य चुनाव के बाद का। चुनाव के पहले भाजपा के लिए अजित एक भ्रष्टाचारी थे और चुनाव के बाद एक साधु बन गए हैं। इसमें बुद्धू कौन- जनता।
रातोंरात बदल गया जनता का "हित"
जनता बुद्धू इसलिए क्योंकि विधानसभा चुनाव के समय उसने ये सोचकर भाजपा को वोट दिया था कि वो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएगी और भ्रष्टाचारी नेताओं को जेल भेजेगी। अब उन्हीं "भ्रष्टाचारी" नेताओं के साथ भाजपा के मुख्यमंत्री को शपथ लेते देखकर जनता क्या सोच रही होगी? सबसे दिलचस्प ये कि ये कार्य भी "जनता के हित" के लिए किया गया है और फडणवीस को एक सपना आया था जिससे उन्हें पता चला कि "जनता का हित" रातोंरात बदल गया है।
असम से लेकर पश्चिम बंगाल तक भाजपा ने दोहराई है यही कहानी
दरअसल, ऐसा पहली बार नहीं है जब जिस नेता को भाजपा ने भ्रष्टाचारी बताया, पार्टी में शामिल होने या उसे समर्थन देने पर वही संस्कारी बन गया। असम में हेमंत बिस्वा से लेकर पश्चिम बंगाल के मुकुल रॉय तक इसके कई उदाहरण हैं। ऐसा भी नहीं है कि ऐसा काम केवल भाजपा ही करती है। अन्य पार्टियां भी चुनाव पूर्व जिस पार्टी या नेता को पानी पी-पी कर कोसती हैं, चुनाव बाद उसके साथ हाथ मिलाने में देर नहीं लगातीं।
"सुबह के अंधेरे" में जनादेश का अपमान
मौजूदा घटनाक्रम में शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) को एक बार को इसलिए माफ किया जा सकता है क्योंकि उन्होंने जो किया एक निश्चित पारदर्शिता के साथ किया। तीनों पार्टियों ने अपनी विचारधाराओं में मतभेदों को स्वीकार करते हुए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत काम करना स्वीकार किया था और इसे लेकर लंबा विचार विमर्श भी हुआ। लेकिन भाजपा ने "सुबह के अंधेरे" में जो किया वो जनादेश के अपमान से कम कुछ नहीं।
हरियाणा में भी पहले दुष्यंत को कोसा, फिर उन्हीं के साथ बनाई सरकार
हरियाणा में भी भाजपा ने यही राह पकड़ी थी। जिस दुष्यंत चौटाला को भाजपा चुनाव के दौरान "गप्पू-पप्पू" और पता नहीं क्या-क्या बोलती थी, अब उसी के साथ सरकार चला रही है। दुष्यंत ने भी भाजपा को खूब कोसा, लेकिन आज उपमुख्यमंत्री बने बैठे हैं।
क्या आदर्शों से नहीं चल सकती राजनीति?
ऐसी परिस्थितियों में राजनीतिक पार्टियां या राजनेता अपने पक्ष में जो सबसे प्रमुख तर्क रखते हैं वो ये कि राजनीति आदर्शों से नहीं चल सकती और राजनीति में कुछ भी गलत नहीं होता। कल्पना कीजिए एक ऐसी व्यवस्था जिसके पास असीम शक्तियां हैं और जो देश और समाज को चलाती है, वो किसी आदर्श पर नहीं चलती। इस व्यवस्था के लिए कुछ भी गलत नहीं और झूठ, धोखा और वादाखिलाफी जैसे अवगुण इसके प्रमुख हथियार हैं।
राजनीति में धोखा और वादाखिलाफी करने वाले कहलाए जाते हैं "चाणक्य"
ऐसी राजनीतिक व्यवस्था अगर देश को चला रही है तो देश किस रास्ते पर जाएगा और जा भी रहा है, ये बताने की शायद ही जरूरत हो। ये समस्या केवल भारत नहीं बल्कि दुनियाभर की राजनीति के साथ है। राजनीति में आदर्शों से ज्यादा तमाम तरह के हितों को तरजीह दी जाती है और इसे राजनीतिक व्यावहारिकता के नाम पर पेश किया जाता है। धोखा और वादाखिलाफी करने वाले लोग इस राजनीति के "चाणक्य" कहलाए जाते हैं।
वाहावाही के शोर में गुम हो जाएंगे अहम सवाल
महाराष्ट्र के मौजूदा घटनाक्रम के बाद भी अमित शाह और अन्य नेताओं की शान में कसीदे पढ़े जाएंगे और उन्हें भारतीय राजनीति का बाहुबली बताया जाएगा। लेकिन इस बीच अहम सवाल कि कैसे राजनीतिक पार्टियों इतनी आसानी से अपने शब्दों और वादों से पलट जाती हैं और कैसे अपने हित के लिए फैसले लेते वक्त उनके मन में एक बार भी जनता के हित या अपने आदर्शों का ख्याल नहीं आता, फिर से वाहावाही के शोर में खो जाएंगे।
खुद को लोकतंत्र का मालिक समझने के भ्रम से बाहर आए जनता
इस पूरे सियासी नाटक में जनता के लिए एक सबक है। उसे समझना चाहिए कि उससे जो कहा जा रहा है और जो असलियत में किया जा कहा है, उसमें बहुत अंतर है। जनता को खुद को लोकतंत्र का मालिक समझने के भ्रम से बाहर आना चाहिए। असली शक्ति बहुत पहले उसके हाथों से निकलकर कहीं और जा चुकी है। लेकिन अगर फिर से मालिक बनना है तो उसे आदर्शों से परे चल रही इस राजनीति को सबक सिखाना होगा।