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    काश! प्रवासी मजदूर भी सोशल मीडिया पर होते, तो सरकार घर जाने के पैसे नहीं मांगती

    काश! प्रवासी मजदूर भी सोशल मीडिया पर होते, तो सरकार घर जाने के पैसे नहीं मांगती

    लेखन मुकुल तोमर
    May 03, 2020
    08:56 pm

    क्या है खबर?

    25 मार्च को लॉकडाउन शुरू होने के लगभग 40 दिन बाद भले ही केंद्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्य पहुंचाने की मंजूरी दे दी हो, लेकिन इस दौरान उसके वापस लौट रहे प्रवासी मजदूरों से टिकट के पैसे लेने पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं।

    कोरोना वायरस महामारी और लॉकडाउन के मारे इन मजदूरों से टिकट के पैसे वसूलना कितना अनुचित है, ये जानने के लिए आइए कुछ तथ्यों पर गौर करते हैं।

    बसें

    राज्य सरकार की बसों में देना पड़ रहा दोगुना किराया

    प्रवासी मजदूरों को वापस उनके गृह राज्य पहुंचाने के लिए जो ट्रेनें और बसें चलाई जा रही हैं, उनमें मजदूरों से टिकट का किराया वसूल किया जा रहा है।

    मजदूर न केवल टिकट का किराया दे रहे हैं, बल्कि उन्हें सामान्य से अधिक किराया देना पड़ा रहा है।

    सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के कारण बसों में जो सीटें खाली छोड़ी जा रही हैं, उनका किराया भी मजदूरों से लिया जा रहा है और उन्हें टिकट दोगुने की पड़ रही है।

    श्रमिक एक्सप्रेस

    रेलवे ने 50 रुपये बढ़ाई टिकट की कीमत

    वहीं रेलवे ने प्रवासी मजदूरों के लिए जो 'श्रमिक एक्सप्रेस' ट्रेनें चलाई हैं, उनमें भी मजदूरों को अधिक किराया देना पड़ रहा है।

    रेलवे राज्य सरकारों की मांग पर ये ट्रेनें चला रहा है और इन पर होने वाला पूरा खर्च राज्य सरकारों को रेलवे को देना है।

    रेलवे स्लीपर सीट के हिसाब से टिकटों की कीमत लगाने के बाद उन पर 30 रुपये का सुपरफास्ट चार्ज और 20 रुपये खाने-पानी का चार्ज लगा रहा है।

    राजनीति

    राज्य और केंद्र सरकार के बीच राजनीति भी तेज

    अब बात करते हैं मामले पर हो रही राजनीति की।

    रेलवे का कहना है कि वह विशेष ट्रेनों का खर्च मजदूरों की बजाय राज्य सरकारों से ले रही है और मजदूरों से पैसे लेने का फैसला राज्य सरकारों का है।

    बदले में राज्य सरकारों का कहना है कि केंद्र सरकार और रेलवे को इन प्रवासी मजदूरों को मुफ्त में उनके गृह राज्य पहुंचाना चाहिए था। चूंकि वे मजदूरों से पैसे ले रही हैं, इसलिए उन्हें राजनीतिक नुकसान का डर है।

    भटकी हुई प्राथमिकताएं

    मजदूरों की मदद नहीं, लेकिन नई संसद के लिए 20,000 करोड़ रुपये की परियोजना

    मजदूरों से टिकट के पैसे वसूलने पर इसलिए और अधिक सवाल उठते हैं क्योंकि केंद्र सरकार ने ऐसी महामारी और आर्थिक संकट के दौर में भी 20,000 करोड़ रुपये की अपनी महात्वाकांक्षी 'सेंट्रल विस्टा' परियोजना को रोका नहीं है।

    इस परियोजना के तहत नई संसद बनाई जानी है और इसके आसपास के इलाकों का पुनर्निर्माण होना है।

    लॉकडाउन के बीच 23 अप्रैल को केंद्रीय पैनल ने इस परियोजना को हरी झंडी दिखाई।

    सवाल

    हर मामले पर फैसले ले रही केंद्र सरकार मजदूरों की मदद करने में पीछे क्यों?

    चूंकि कोरोना वायरस महामारी के कारण इस समय सारे अहम फैसले लेने की ताकत केंद्र सरकार के हाथों में है और लॉकडाउन में छूट से लेकर हर छोटा और बड़ा फैसला वही ले रही है, ऐसे में सबसे ज्यादा सवाल उसी पर उठते हैं।

    राज्यों को खुद से फैसले लेने की छूट नहीं है, लेकिन जब प्रवासी मजदूरों को वापस उनके घर भेजने की बारी आई तो केंद्र ने इसका जिम्मा राज्यों पर डाल दिया और सफर मुफ्त नहीं किया।

    दोहरे मापदंड

    विदेशों में फंसे भारतीयों से नहीं लिए गए थे टिकट के पैसे

    सबसे अधिक चौंकाने वाली बात ये है कि इसी कोरोना वायरस महामारी के समय विदेशों में फंसे भारतीयों को जब भारत वापस लाया गया था तो उनका पूरा खर्च केंद्र सरकार ने उठाया था।

    इन भारतीयों को लाने वाली एयर इंडिया ने इसका बिल विदेश मंत्रालय को भेजा और उसी की तरफ से इसका भुगतान किया गया।

    अब जब इन मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की बारी आई तो केंद्र सरकार उनका खर्च उठाने से पीछे हट गई।

    निजी विचार

    अगर सोशल मीडिया पर होते मजदूर...

    सोशल मीडिया और टीवी के शोर को सुनने की आदी पड़ चुकी हमारी सरकारों के लिए इन मजदूरों की तकलीफें बहुत अधिक मायने नहीं रखती क्योंकि न तो वे सोशल मीडिया पर हैं और न ही टीवी न्यूज उनके वाजिब सवालों को आगे रखता है।

    अगर ये मजदूर भी सोशल मीडिया पर होते और मध्यम वर्ग की तरह अपनी हर मांग के लिए शोर पैदा कर सकते, तो शायद सरकारों को उनसे ऐसे "सौतेला व्यवहार" करने की हिम्मत नहीं मिलती।

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