'सड़क 2' रिव्यू: टूटी-फूटी और गड्ढों से भरी यह 'सड़क' मंजिल तक पहुंचने में नाकाम रही
क्या है खबर?
सोशल मीडिया पर काफी ट्रोल होने के बाद आखिरकार महेश भट्ट के निर्देशन में बनी फिल्म 'सड़क 2' डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हो चुकी है।
बतौर निर्देशक उन्होंने 20 साल बाद इस फिल्म से वापसी की है। तब से आज तक फिल्मों में काफी बदलाव आ चुके हैं। आज के दर्शक स्टार कास्ट नहीं, बल्कि बेहतरीन कहानी देखना पसंद करते हैं।
ऐसे में आइए जानते हैं कि महेश भट्ट दर्शकों की पसंद को कितना समझ पाए हैं।
कहानी
ढोंगी बाबा ज्ञानप्रकाश से नफरत करती है आर्या
'सड़क 2' 1991 में रिलीज हुई महेश भट्ट की 'सड़क' का सीक्वल है। फिल्म की शुरुआत होती है आर्या (आलिया भट्ट) से जो एक ढोंगी बाबा ज्ञानप्रकाश (मरकंडा देशपांडे) के कटआउट को आग के हवाले कर देती है।
आर्या का परिवार पिता योगेश देसाई (जिशु सेनगुप्ता) और मौसी से मां बन चुकी नंदिनी (प्रियंका बोस) इस बाबा को भगवान मानते हैं। जबकि आर्या, ज्ञानप्रकाश से नफरत करती है और इसीलिए सभी लोग आर्या की जान लेने के पीछे पड़े हैं।
आगे की कहानी
टैक्सी ड्राइवर की जिंदगी में होती है आर्या की एंट्री
आर्या, ज्ञानप्रकाश से बदला लेना चाहती हैं। जिसके तहत वह एक मिशन चलाती है। इसी दौरान उसे एक सोशल मीडिया ट्रोलर विशाल (आदित्य रॉय कपूर) से प्यार हो जाता है।
वहीं टैक्सी ड्राइवर रवि किशोर (संजय दत्त) की अलग कहानी चल रही है। कुछ दिन पहले उसकी पत्नी पूजा की मौत हुई है।
इसके बाद वह आत्महत्या की कोशिश करता है। तभी रवि की जिंदगी में आर्या की एंट्री होती है, जिसकी पूजा ने कैलाश जाने की बुकिंग की थी।
मोड़
कहानी में आता है नया मोड़
रवि और आर्या निकल पड़ते है कैलाश के सफर पर, लेकिन इस बीच आर्या को बॉयफ्रेंड विशाल को भी लेना है।
कहानी में मोड़ तब आता है जब आर्या को अपने पिता के एक राज का पता चलता है। विशाल का भी एक ऐसा सच है जो आर्या को हैरान कर देता है।
इस सफर के दौरान कई ऐसी घटनाएं होती हैं जिसकी वजह से आर्या, रवि के लिए जीने का मकसद बन जाती है।
अभिनय
निराश करती है आलिया और संजय दत्त की अदाकारी
फिल्म में अभिनय की बात करें तो किसी को भी बहुत शानदार नहीं कहा जा सकता। हर किसी को देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें मनोचिकित्सक की जरूरत है।
आलिया भट्ट से हमेशा दर्शकों को बहुत उम्मीदें होती हैं, लेकिन इस बार उन्होंने भी अपनी ओवर एक्टिंग से फैंस को निराश कर दिया।
संजय दत्त के किरदार को इतना रुला दिया गया है कि एक वक्त के बाद वह भी बहुत अजीब लगने लगता है।
अन्य कलाकार
अन्य कलाकार भी नहीं कर पाए इंसाफ
आदित्य रॉय कपूर के पास हीरो के नाम पर ना तो ज्यादा डायलॉग्स हैं और ना ऐसे कोई रोमांटिक या एक्शन सीन्स।
इनके अलावा फिल्म देखने के बाद मारकंड देशमुख से भी उम्मीद टूट गईं। उनका किरदार डराने और खुद से नफरत करवाने की बजाय कॉमिक ज्यादा लगा।
गुलशन कुमार जैसे मंझे हुए कलाकार से भी ओवर एक्टिंग करवाने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई।
जीशु सेनगुप्ता की अदाकारी भी कई जगहों पर बहुत खटकने लगती है।
निर्देशन
खो गया महेश भट्ट के निर्देशन का जादू
1999 में जब महेश भट्ट ने निर्देशक के तौर पर अपना पद छोड़ा था तो उनके पीछे 'नाम', 'डैडी', 'आशिकी', 'सड़क', 'दस्तक' और 'जख्म' जैसी फिल्मों की सौगात थी।
'सड़क 2' देखने के बाद लगता है कि वह 80 और 90 दशक में फंसे हुए हैं, या फिर यूं कहें कि वह 90 के दशक का जादू तक नहीं चला पाए।
फिल्म की कहानी बहुत साधारण है, लेकिन महेश भट्ट की कलम ने उसे बोरिंग और बोझिल बना दिया है।
म्यूजिक
म्यूजिक ने भी तोड़ दी उम्मीदें
भट्ट कैंप की एक खासियत रही है कि फिल्म चाहे जैसी भी हो, लेकिन गाने कमाल के होते है।'सड़क 2' के साथ उनकी यह खासियत भी धूमिल होती दिख रही है। फिल्म का कोई गाना ऐसा नहीं है जिसे सुनकर आपको दोबारा सुनने का दिल करे।
एक सीन में संजय दत्त 1991 की 'सड़क' का गाना 'हम तेरे बिन' सुन रहे हैं। सिर्फ यहीं थोड़ा सुकून महसूस होता है और गाने को पूरा सुनने की इच्छा होती है।
समीक्षा
देखें या ना देखें?
'सड़क 2' के साथ महेश भट्ट ने डायरेक्टर और लेखक के तौर पर निराश किया है। फिल्म में जबरदस्ती भारी-भरकम डायलॉग डालने की कोशिश इसे बेतुका बना देती है।
कलाकारों की अच्छी कोशिश के लिए एक बार यह फिल्म देखी जा सकती है, लेकिन अगर आपके पास खाली टाइम और डिज्नी प्लस हॉटस्टार का सब्सक्रिप्शन नहीं है तो इस फिल्म को देखने के लिए अपने पैसे बर्बाद न करें।
हम फिल्म को पांच में से एक स्टार दे रहे हैं।