'खो गए हम कहां' रिव्यू: जीवन में 'जहर' घोल रहे सोशल मीडिया की सच्चाई दिखाती फिल्म
पिछले काफी समय से चंकी पांडे की बेटी और अभिनेत्री अनन्या पांडे फिल्म 'खो गए हम कहां' को लेकर चर्चा में हैं। इस फिल्म में उनके साथ सिद्धांत चतुर्वेदी और आदर्श गाैरव भी अहम भूमिका में हैं। अर्जुन वरैन सिंह ने फिल्म के निर्देशन की कमान संभाली है, वहीं जोया अख्तर और रीमा कागती के साथ मिलकर उन्होंने इसकी कहानी भी लिखी है। यह 26 दिसंबर को नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो गई है। कैसी है ये फिल्म, रिव्यू पढ़कर जानिए।
3 दोस्तों की दोस्ती और उलझनों पर आधारित है फिल्म
कहानी 3 दोस्तों इमाद (सिद्धांत), नील (आदर्श) और अहाना (अनन्या) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो बिना कहे ही एक-दूसरे की भावनाएं समझ जाते हैं। तीनों जीवन में किसी न किसी न वजह से एक कश्मकश में उलझे हुए हैं। कहानी में मोड़ तब आता है, जब साेशल मीडिया के कारण इनके रिश्ते बिखरने लगते हैं। फिर उन्हें अहसास होता है कि सोशल मीडिया में घुसे रहने के कारण वे वास्तव में ये भूल गए कि वास्तविक जीवन कैसा होता है।
रिश्तों में दरार डाल रहा सोशल मीडिया, यही कहती है फिल्म
कुछ समय से सोशल मीडिया हमारे जीवन, काम और रिश्तों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहा है। कुछ की जिंदगी में तो यह जरूरत से ज्यादा हावी हो गया है। खासकर युवा पीढ़ी की सोशल मीडिया पर बढ़ती सक्रियता उनके रिश्तों को कैसे खराब कर रही है, फिल्म में यही दिखाया गया है। हालांकि, फिल्म सोशल मीडिया से कहीं ज्यादा रिश्तों के बारे में है कि इस डिजिटल युग में युवा कैसे अपने रिश्तों से निपट रहे हैं।
अनन्या और आदर्श के अभिनय से दमकी फिल्म
अनन्या ने साबित कर दिया है कि अगर भूमिका उनकी शख्सियत जैसी हो तो महफिल यकीनन वो भी लूट सकती हैं। उनके अभिनय में पहली बार इतनी परिपक्वता देखने को मिली। सिद्धांत की भूमिका सबसे दमदार है, लेकिन उनसे ज्यादा जान फिल्म में आदर्श ने डाली है। 'द व्हाइट टाइगर' और वेब सीरीज 'गन्स एंड गुलाब्स' के बाद आदर्श ने फिर अपने उम्दा अभिनय से दिल जीत लिया है। उधर कल्कि कोचलिन छोटी-सी भूमिका में भी प्रभावित करती हैं।
निर्देशक ने पूरी जिम्मेदारी से किया अपना काम
नवोदित निर्देशक अर्जुन का काम सचमुच सराहनीय है। उन्होंने OTT पर निशाना बिल्कुल सही साधा है। मेट्रो संस्कृति और डिजिटल क्रांति के भयावह प्रभाव को उन्होंने बड़ी सहजता से कहानी में पिरोया है। सोशल मीडिया के इस दौर में हजारों लोगों से जुड़े रहने के बावजूद एक अकेलापन कचोटता है। लोगों के पास दूसरों के जीवन में तांक-झांक करने का वक्त है, लेकिन अपने अंदर झांकने का समय नहीं है, मनोरंजक अंदाज में निर्देशक अपनी ये बात समझा गए हैं।
दूसरी खास बातें
फिल्म में डायलॉग बड़े भारी-भरकम या कहें पेचीदा नहीं हैं। ये साधारण है, लेकिन ऐसे हैं, जिनसे आप खुद को जोड़ सकते हैं। संपादन और लेखन जबरदस्त है। एक और खास बात है कि शुरू से लेकर अंत तक कहानी कहीं भी भटकती नहीं है।
संगीत और सिनेमैटोग्राफी
फिल्म का संगीत आज के समय के हिसाब से ही बनाया गया है। हालांकि, इसका कोई भी गाना ऐसा नहीं है, जिसे आप गुनगुनाते रह जाएं या जो फिल्म खत्म होने के बाद याद रह जाए। हालांकि, सिनेमैटोग्राफर का काम काबिल-ए-गौर है।
देखें या ना देखें?
क्यों देखें?- फिल्म न तो ज्यादा ज्ञान देती है और ना ही मनोरंजन में कमी करती है। यह सोशल मीडिया के पीछे की खोखली सच्चाई को दिखाने की एक बड़ी ईमानदार कोशिश है, जिसे एक मौका तो मिलना ही चाहिए। क्यों न देखें?- अगर आपको ये जानने में दिलचस्पी नहीं कि जीवन में खुशी सोशल मीडिया पर खुद को खुश दिखाकर नहीं, बल्कि अंदर से खुश होने से मिलेगी तो आप यह फिल्म छोड़ सकते हैं। न्यूजबाइट्स स्टार- 4/5