#NewsBytesExplainer: दादा साहेब फाल्के ने कैसे रखी भारतीय सिनेमा की नींव? जानिए पूरी कहानी
क्या है खबर?
दादा साहेब फाल्के वो शख्स थे, जिनका नाम भारतीय सिनेमा में बड़े अदब से लिया जाता है। उन्होंने भारतीय सिनेमा की आधारशिला रखी।
महाराष्ट्र के नासिक में एक मराठी परिवार में 30 अप्रैल, 1870 में जन्मे फाल्के ने उस वक्त सिनेमा जगत में पदार्पण किया, जब भारत में इसका कोई अस्तित्व ही नहीं था।
उनकी जयंती के मौके पर आज हम आपको उनके बारे में विस्तार से बताएंगे और यह भी बताएंगे कि उनका फिल्मी सफर कैसे शुरू हुआ।
नाम
क्या था असली नाम और कहां से ली शिक्षा?
दादा साहेब का असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था।
उनकी शुरुआती शिक्षा जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स और बड़ौदा के कला भवन में हुई। बचपन से ही कला और साहित्य में उनकी दिलचस्पी थी, इसलिए उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई के लिए कला को ही चुना।
स्कूल में पढ़ाई करने के साथ ही उन्होंने फोटोग्राफी, अभिनय, मॉडलिंग, पेंटिंग, ड्राॅइंग, आर्किटेक्चर, संगीत जैसी कलाएं सीखीं। फाल्के ने इन सब चीजों को बहुत गंभीरता से लिया और अपने अंदर धारण किया।
प्रयोग
खोली खुद की प्रिंटिंग प्रेस
स्कूल से निकलने के बाद फाल्के सभी कलाओं में माहिर थे, लेकिन उन्हें एक मौके की तलाश थी, जहां वह इनका प्रयोग कर सकें।
उन्होंने एक दोस्त की मदद से लक्ष्मी आर्ट प्रिंटिंग प्रेस खोली, जिसमें वह अपनी कला के प्रयोग करने लगे।
1909 में एक नई कलर प्रिंटिंग प्रेस लाने के लिए वह जर्मनी चले गए। सब बढ़िया चल रहा था, लेकिन दोस्त से उनकी कुछ अनबन हो गई। लिहाजा उन्होंने इस साझेदारी से खुद को अलग कर दिया।
आइडिया
फिल्म बनाने की धुन कैसे सवार हुई?
फिल्मों की दुनिया में उन्होंने रुख उस वक्त किया, जब पहली बार ईसा मसीह के जीवन पर बनी एक फिल्म 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखी।
फाल्के ने इसमें हिंदू देवी-देवताओं को बैठाया और अलग-अलग कहानियां आंखों के सामने घूमने लगीं। वह समझ गए थे कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन करना यही है।
फाल्के अपनी धुन के बहुत पक्के थे। उन्होंने फिल्म बनाने की ठान ली। हालांकि, पहली फिल्म बनाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा था।
रकम
फिल्म बनाने के लिए गिरवी रखे पत्नी के जेवर
उस वक्त भारत में अंग्रेजों का शासन था और फिल्म बनाने में बहुत पैसे लगते थे। फाल्के ने इंग्लैंड से अखबारों, मैगजीनों और वहां के कुछ दोस्तों को अपना साथी बनाया और एक फिल्म बनाने का काम शुरू कर दिया।
जब उन्होंने यह प्रयोग शुरू किया तो इसमें उनके जीवन की पूंजी स्वाहा हो गई।
उन्होंने अपनी पत्नी सरस्वती के जेवर तक गिरवी रख दिए। यहां तक कि दिन-रात काम करने से उनकी आंखों की रोशनी कम हो गई।
कहानी
जब लगी कहानी पर मोहर
कहा जाता है कि घर में पति-पत्नी और बच्चों में तय था कि फिल्म बनेगी, लेकिन किस पर बनेगी, यह तय नहीं था।
कहानियों को लेकर रोज पूरे परिवार में विचार-विमर्श होता था। सरस्वती कोई कहानी कहती थीं तो फाल्के को पसंद नहीं आती थीं और वह कोई कहानी कहते तो पूरी होने से पहले ही बच्चे सो जाते थे।
एक रात फाल्के ने 'राजा हरिश्चंद्र' की कहानी सुनाई, जिसके लिए पूरे परिवार ने हामी भरी और कहानी तय हुई।
जिम्मेदारी
पत्नी ने संभाला कैमरा और संपादन का काम
फिल्म को बनाने के लिए फाल्के ने 2 महीने तक हर रोज 4 से 5 घंटे सिनेमा देखा। बचे हुए वक्त में वह फिल्म बनाने की उधेड़-बुन में लगे रहते थे।
फाल्के ने सरस्वती को कैमरा संभालने को बोला। सरस्वती ने कैमरा संभालना सीखा।
इसके अलावा वह रोज क्रू के 70 से ज्यादा लोगों के लिए खाना बनाती थीं।
जब फिल्म बनी तो उसके संपादन की जिम्मेदारी भी सरस्वती ने ही संभाली। भारतीय सिनेमा की पहली एडिटर सरस्वती ही थीं।
पहला मौका
पहली बार महिलाओं को कराए सिनेमा जगत के दर्शन
कहा जाता है कि इस फिल्म को बनाने के लिए 15,000 रुपये खर्च हुए थे, जो उस समय एक बहुत बड़ी राशि थी।
फाल्के ने फिल्मों में महिलाओं को काम करने का मौका दिया। उनकी बनाई फिल्म 'भस्मासुर मोहिनी' थी, जिसमें उन्होंने 2 महिलाओं को काम करने का मौका दिया, जिनके नाम दुर्गा और कमला थे।
फाल्के ने अपने 19 साल लंबे करियर में 95 फिल्में और 27 शॉर्ट फिल्में बनाईं।
आगाज
3 मई, 1913 में जनता के सामने आई फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र'
उस दौर में कोई अभिनेत्री फिल्मों में काम करने को तैयार नहीं थी। फाल्के ने फिल्म में रानी तारामती का किरदार निभाने के लिए अखबार में विज्ञापन देने से लेकर सारे हथकंडे अपनाए, लेकिन हीरोइन नहीं मिली।
आखिर में यह किरदार एक पुरुष कलाकार अन्ना सालुंके ने निभाया। इस फिल्म का सेट मुंबई के दादर में लगा था। फिल्म बनाने में करीब-करीब 8 महीने लग गए थे।
3 मई, 1913 को यह फिल्म जनता के सामने पेश की गई थी।
जानकारी
न्यूजबाइट्स प्लस
फाल्के ने 16 फरवरी, 1944 को आखिरी सांस ली। भारत सरकार ने भारतीय सिनेमा में उनके अमिट योगदान की याद और उनके सम्मान में 1969 में दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड की शुरुआत की। देविका रानी चौधरी को पहली बार इस सम्मान से नवाजा गया था।